- पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं अर्थशास्त्री श्री सोमपाल शास्त्री से लंबी बातचीत के प्रमुख अंश
प्रश्न : सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना की अवधारणा के संबंध में कृपया विस्तार से बतायें?
उत्तर: सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना की अवधारणा मूलतः समाजवाद के सिद्धांत और विचारधारा से प्रेरित थी। यह सर्वविदित है कि कार्ल मार्क्स एक महान चिंतक हुए हैं। उन्होंने अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि पूरी सामाजिक व्यवस्था और उसके संपूर्ण इतिहास का गहन अध्ययन किया था। उनका निष्कर्ष था कि मानव सभ्यता के विकास और उसके संगठन के स्वरूप को जहां भौगोलिक और जलवायुयिक परिस्थितियां प्रभावित करती हैं वहीं भौतिक और आर्थिक संसाधनों के स्वामित्व और समाज में परस्पर काम बांटकर करने, जिसे उन्होंने श्रम विभाजन की संज्ञा दी, का भी बहुत बड़ा असर होता है। कालांतर में यह हुआ कि भौतिक संसाधनों की सत्ता और स्वामित्व कुछ गिने-चुने हाथों में केन्द्रित होते चले गये। समाज के जिन वर्गों के हाथों में भौतिक सत्ता का यह केन्द्रीयकरण हुआ, उन्होंने दूसरे वर्गों की सेवाएं अपने द्वारा निर्दिष्ट मूल्यों के आधार पर लेनी शुरू कर दी। यहीं से शोषण का प्रारंभ हुआ। पूंजीवादी व्यवस्था मूलतः मानवीय संवेदना पर आधारित न होकर व्यक्तिगत लाभ की लिप्सा से निर्देशित होती है। यदि उसके ऊपर किसी प्रकार का अंकुश न हो तो उसकी कोई सीमा रेखा नहीं रह जाती। कोई सीमा रहती भी है तो वह केवल पूंजी के स्वामी की करूणा और दयाभाव के कारण रहती है। वह उसे मानता है कि नहीं मानता यह उसकी इच्छा पर निर्भर है। समाज का कोई नियंत्रण उस पर नहीं रहता। मार्क्स की मान्यता है कि उत्पादन के सब संसाधन मूलतः प्रकृति प्रदत हैं। उनका स्वामित्व किसी की व्यक्तिगत बपौती नहीं है। इस तर्क के आधार पर उन्होंने सिद्धांत प्रतिपादित किया कि भौतिक संसाधनों का स्वामित्व समाज का होना चाहिए और उनका उपयोग समाज के व्यापक हित में होना चाहिए। इसी का सहयोगी सिद्धांत यह कि कार्य तो सभी व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार करें और उपभोग अपनी आवश्यकता के अनुसार। इस धरातल पर मार्क्स का यह सिद्धांत 'वैदिक संपदा' और महात्मा गांधी के 'ट्रस्टीशिप' के सिद्धांत के समकक्ष है।
यह तो हुई सिद्धांत की बात। परंतु प्रश्न उठता है कि इसे व्यवहार में कैसे परिणत किया जाय। मार्क्स के अनुसार इसका समाधान है राज्य का हस्तक्षेप। उनके अनुसार राज्य क्योंकि पूरी जनता का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए इस अनुशासन को लागू करने का काम राज्य अपने हाथों में ले। यह उसका जनता द्वारा निर्धारित कर्तव्य है और उसी द्वारा प्रदत्त अधिकार भी। मार्क्स के अनुसार समाज में शोषण की मात्रा पूंजी, यानी आर्थिक संसाधनों के आधिपत्य/केन्द्रीयकरण के ऊपर निर्भर करती है। जितना अधिक केन्द्रीयकरण उतना ही शोषण अधिक। उतनी ही वर्ग संघर्ष की संभावना बढ़ती चली जाती है। मार्क्स ने कहा कि संपत्ति व्यक्तिगत तो हो परंतु निजी नहीं। व्यक्तिगत संपत्ति से उनका अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भोजन, वस्त्र, मकान और फर्नीचर तथा लिखने-पढ़ने आदि के उपकरण ये सब पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों। परंतु उसे आवश्यकता से अधिक संग्रह करने, पूंजी के रूप में प्रयोग करने और मूल्यों का निरंकुश निर्देशन करने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार का अधिनायकत्व किसी के हाथ में नहीं दिया जा सकता। राज्य यह सुनिश्चित करे कि सब अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करें और सबकी आवश्यकताएं समतापूर्वक पूरी हों। कोई किसी का शोषण नहीं करे। यह सुनिश्चित करना ही राज्य की भूमिका होनी चाहिए। तर्क के आधार पर तो यह विचार बहुत सुंदर है। परंतु इसको व्यवहार रूप में लाने में जो कठिनाइयां आने वाली थीं और बाद में आईं भी, जिनके कारण साम्यवादी व्यवस्था देखते ही देखते ध्वस्त हो गई, उसका पूर्वानुमान मार्क्स नहीं कर पाये।
प्रश्न: मतलब यहां से आई कल्याणकारी अवधारणा ?
उत्तर: हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू इस विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित हुए। वे यूरोप से दो विचार लेकर आये। एक तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता का जो उनकी राय में लोकतांत्रिक प्रणाली में ही संभव है। दूसरा, संपत्ति के सामाजिक स्वामित्व के माध्यम से समाज के कल्याण का। जब हमारा संविधान बना तो उन्होंने और इसी विचारधारा से प्रभावित उनके सहयोगियों ने इसे "सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसाइटी' की संज्ञा दी। सारी आर्थिक नीतियां इसके आधार पर बनाई गईं। यही था सार्वजनिक उपक्रमों के गठन का वैचारिक तर्क आधार।
अब इसके क्रियान्वयन की बात लें। स्वतंत्रता से पूर्व ही देश के कर्णधार नेताओं के संज्ञान में था कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के द्वारा औद्योगिकीकरण और शहरीकरण होने के बावजूद उनका लाभ आम आदमी को नहीं मिला। इसका कारण औपनिवेशिक शासकों द्वारा भारत के प्राकृतिक संसाधनों और श्रम के शोषण का भाव था। उनके द्वारा लागू की गई शिक्षा, कानूनी और न्यायिक व्यवस्था तथा आधारभूत ढांचे का विकास सब इसी उद्देश्य से प्रेरित थे। दूसरी समस्या जो नीति निर्धारकों के संज्ञान में आई वह थी भारतीय व्यवसायियों का पुरातन व्यापारिक दृष्टिकोण। जिसे अंग्रेजी में प्रिमिटिव मोड आफ ट्रेडिंग कहा जाता है। इससे ग्रस्त व्यवसायियों की दृष्टि दीर्घकालीन न होकर अल्पकालीन लाभ की रहती है। ऐसे पूंजीपति किसी भी ऐसे उद्यम में निवेश करने को उद्यत नहीं होते जिसमें निवेश का लाभ वर्षों बाद प्राप्त हो।
उदाहरण के तौर पर यदि पानी का जहाज बनाने की सोची जाय तो उसकी जैटी और अन्य व्यवस्था करने में 10 से 15 वर्ष समय लग सकता है। उसके बाद जहाज बनाने में कई वर्ष लग जाते हैं। तत्कालीन पूंजीपतियों के दकियानूसी चिंतन में इतने लंबे समय तक प्रतीक्षा करने का धैर्य नहीं था। तीसरी समस्या यह थी कि आम आदमी को कतिपय मौलिक सुविधाएं प्रदान करने के लिए बिजली, सड़क, अस्पताल, शिक्षा, सिंचाई, संचार और यातायात आदि अत्यंत आवश्यक तो थे परंतु इनमें से अधिकांश उद्यम तुरन्त वाणिज्यिक लाभ देने वाले नहीं थे। ऐसी सामुदायिक सेवाओं में भी व्यापारी निजी निवेश करने को उद्यत नहीं थे। चौथी समस्या थी इस्पात, भारी मशीनरी तथा रक्षा उपकरणों जैसे आधारभूत उद्योगों के विकास की। इनके संबंध में तीन बाधाएं थीं। पहली तो बड़ी मात्रा में पूंजी की आवश्यकता। दूसरी निवेश और प्रतिफल के बीच के लंबे अंतराल की। और तीसरी सबसे बड़ी कठिनाई थी, प्रौद्योगिकी की उपलब्धता। केवल एक दो उदाहरण अवश्य थे जैसे टाटा आयरन एण्ड स्टील और इंडियन आयरन एण्ड स्टील। परंतु वे देश के विकास के लिए आवश्यक स्टील की मात्रा का केवल एक छोटा सा अंश उत्पादित करते हैं। ये लोग अन्य इकाइयों को इस क्षेत्र में आने नहीं देना चाहते हैं। क्योंकि इससे उनके एकाधिकार और मनमाने दाम वसूलने की एकाधिकार की प्रवृत्ति को चुनौती मिल सकती थी। सबसे बड़ी समस्या थी कि अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड और फ्रांस जैसे विकसित देश हमें आधुनिक प्रौद्योगिकी की जानकारी देने को तैयार नहीं थे। उस स्थिति में हमारे संबल बने पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देश-रूस, पूर्वी जर्मनी और चैकोस्लोवाकिया आदि। उन्होंने हमें तकनीक भी दी और निवेश के लिए कुछ सहायता भी। उसके परिणामस्वरूप इस्पात निर्माण के तीन बड़े संयंत्र स्थापित हो सके-भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर।
इन परिस्थितियों ने स्पष्ट रूप से यह आभास कराया कि इन क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश किये बिना काम नहीं चलेगा। फिर तो सार्वजनिक उद्यमों की एक लंबी श्रृंखला बनती चली गई। एक तो इन उद्योगों ने विकास की गति जो थम गई थी उसे गतिशील किया। दूसरे, निजी उद्योगों के एकाधिकार को समाप्त कर उचित मूल्यों पर विकास के लिए आवश्यक सामग्री, मशीनरी तथा सार्वजनिक सेवाएं उपलब्ध कराईं। आर्थिक विकास के इस नवीन आयाम का सर्वाधिक उज्जवल पक्ष यह था कि सार्वजनिक उद्योगों में निवेश मिशन की भावना से किया गया। यह उन तपस्वी, अनुभवी, त्यागी नेताओं और युगद्रष्टाओं का समय था जिनकी प्रतिबद्धता और निष्ठा राष्ट्र की सेवा के प्रति थी। दुर्भाग्य से उसका आजकल सर्वथा अभाव दृष्टिगोचर होता है। उस समय जिन प्रशासनिक और तकनीकी अधिकारियों को सार्वजनिक उद्यमों को चलाने का उत्तरदायित्व दिया गया था वे भी इसी मिशन भावना से ओत-प्रोत थे। स्पष्ट है कि इन उद्यमों का उद्देश्य और प्रवृत्ति व्यावसायिक लाभ नहीं बल्कि देश का विकास और जनसाधारण का हित था।
सड़कें और सिंचाई परियोजनाएं इनके सर्वाधिक सटीक उदाहरण हैं। सिंचाई परियोजनाओं में भाखड़ा नंगल बांध और दामोदर वैली कार्पोरेशन जैसी अनेकों बहुउद्देश्यीय योजनाएं बनीं जिनके कारण भारत को अपनी खाद्य समस्या को हल करने में सफलता प्राप्त हुई। उस समय हमारा खाद्यान्न उत्पादन आवश्यकता से कहीं कम था। इस अभाव की पूर्ति हमें अमेरिका के पीएल-480 कानून के अंतर्गत प्राप्त सहायता से करनी पड़ी। 1951 से 1966 तक यह सहायता हमें उपलब्ध रही। भारत की इस विवशता का वर्णन करने के लिए एक अपमानजनक वाक्य प्राय: कहा जाता था कि "भारत शीप टु माउथ रिजीम" में रह रहा था। अभिप्राय यह था कि अमेरिकी अनाज से भरा जहाज बंदरगाह पर लगता था तब भारत के दूर-दराज क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के मुंह तक निवाला पहुंचाकर उनकी उदरपूर्ति की व्यवस्था हो पाती थी। एक तरफ तो इस निर्धारित अवधि के समाप्त होते ही अमेरिकी सहायता बंद हो गई और दूसरी और 1967 और 1968 के दोनों वर्ष सूखे की मार के थे। उस समय न तो हमारे पास खाद्यान्न का पर्याप्त उत्पादन था और न ही इतनी विदेशी मुद्रा थी जिससे हम खाद्यान्न आयात कर सकते। हरित क्रांति के बीज उसी समय बोये गये थे। बिना सिंचाई के साधनों और बीज, खाद, अनुसंधान तथा तकनीकी के प्रसार की व्यवस्था किये खाद्यान्न में आत्मनिर्भर होना संभव नहीं था। यह सब कार्य निजी निवेश से संभव नहीं था क्योंकि इनका वाणिज्यिक प्रभार मूल्य चुकाना गरीब किसानों के वश की बात नहीं थी। अतः सार्वजनिक निवेश ही एकमात्र संबल और मार्ग था।
कुछ ही समय बाद अनाज का उत्पादन इतना होना शुरू हो गया कि न केवल अभाव समाप्त हुआ बल्कि किसी-किसी साल आवश्यकता से अधिक पैदावार होने लगी। इस कारण दो समस्याएं खड़ी हो गई। प्रथम तो अभाव के दौरान व्यापारियों द्वारा खाद्यान्न की जमाखोरी और मनमाने दाम वसूलने की प्रवृत्ति और अधिक उत्पादन के वर्ष में किसानों से अत्यंत कम मूल्यों पर खरीद कर उनका शोषण करने की। दूसरी समस्या खाद्यान्न को गरीब लोगों के पास पहुंचाने और उचित मूल्य पर उपलब्ध कराने की थी। इन दोनों के समाधान के लिए स्थापना की गई भारतीय खाद्य निगम की। उसी के साथ कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से खाद्यान्न की आपूर्ति करने को संस्थागत व्यवस्था बनी। विदेशों से आवश्यक जिंसों, धातुओं, मशीनों, तकनीकी जानकारी तथा विकास के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने में भी निजी व्यवसाय अवांछित लाभ कमाने की दृष्टि रखता था। इन सबसे निपटने के लिए स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन, एम.एम.टी.सी., एन.बी.सी.सी., इंडियन आइल कारपोरेशन, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स, भारत इंजीनियरिंग कारपोरेशन, भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड जैसे अनेकों सार्वजनिक उपक्रमों की श्रृंखला बनी। इन परियोजनाओं तथा उपक्रमों को नेहरू जी ने "आधुनिक भारत के मंदिर" कहकर पुकारा था। वास्तव में ये भारत के विकास के मंदिर सिद्ध हुए। इसी तारतम्य में श्रीमती इंदिरा गांधी ने गिने-चुने पूंजीपतियों का हित साधन करने के बजाय आम आदमी के हित का साधन बनाने के लिए बैंकिंग प्रणाली का राष्ट्रीयकरण किया। आधुनिक विकास की जिस विधा का संवरण हमने कर लिया था उसको तार्किक परिणति तक पहुंचाने, उसका लाभ आम आदमी तक पहुंचाने तथा उस प्रक्रिया में जन-जन की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए उस दौरान यही सर्वोत्तम विकल्प थे। ये गतिविधियां प्रारंभ में तो बहुत सुचारू रूप से और सकारात्मक उद्देश्य से संचालित हुई। परंतु कालांतर में अपवादस्वरूप भ्रष्टाचार और अकुशलता की अपकारक घटनाएं प्रकट होने लगी। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि शुद्ध व्यवसाय की दृष्टि से किसी भी उद्यम द्वारा आर्थिक लाभ अर्जित न किये जाने को अकुशलता की संज्ञा दी जा सकती है। किंतु सार्वजनिक उपक्रमों में दृष्टिकोण शुद्धतः लाभ कमाना नहीं बल्कि सार्वजनिक हित रहता है। संक्षेप में यह है सार्वजनिक उपक्रमों का दर्शनाधार।
प्रश्न : आप कहना चाहते हैं कि मूल बात विकास को ही ध्यान में रखने की थी?
उत्तर: जी हां। किंतु विकास किन लोगों का? कुछ मुट्ठी भर पूंजीपतियों और शासन सत्ता में बैठे लोगों का अथवा आम आदमी का ? स्पष्ट है कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा आम आदमी के हित की है। विकास का अंतिम लक्ष्य आम आदमी हो, इसके लिए विकास की भी ठीक परिभाषा करने की जरूरत है। आर्थिक विकास से राष्ट्र की कुल संपत्ति और आय बढ़ती है। परंतु प्रश्न यह है कि संवर्धित आय और क्रय शक्ति किसके हाथ में आती है? इस कसौटी पर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि दर राष्ट्र के विकास का एकमात्र और सटीक मापदंड नहीं है। यही स्थिति प्रति व्यक्ति आय की है, जिसको गणना हम राष्ट्रीय आय को जनसंख्या से विभाजित कर गणितीय फार्मूले से कर लेते हैं। प्रगति का सही प्रमाण तो आम आदमी के जीवन स्तर और उसकी गुणवत्ता में सुधार है। इतना सुनिश्चित होना तो आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति की भोजन, पौष्टिक पदार्थ, स्वच्छ जल, शरीर के ऊपर बस्त्र, सिर के ऊपर छत, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी मौलिक आवश्यकताएं तो पूरी हों। व्यवस्था ऐसी हो कि प्रत्येक को अपनी दशा सुधारने का अवसर उपलब्ध रहे। निजी निवेश और सार्वजनिक निवेश के मूल उद्देश्य में यही मौलिक अंतर है। सार्वजनिक उद्यम गरीबों और वंचितों का शोषण कर मुनाफा कमाने के लिए नहीं बल्कि उनकी सहभागिता और उन्हें रोजगार का अवसर प्रदान करने की सुनिश्चिता के लिए होते हैं। उसके ऊपर संसदीय प्रणाली और लोक लेखा प्रणाली के अंकुश रहते हैं। यदि वह मुनाफा कमाता भी है तो उसे राजकोष में जमा करना पड़ता है, जो सरकार द्वारा संचालित विभित्र सार्वजनिक कल्याण के कामों में लगाया जाता है।
प्रश्न : आपने मुनाफे की बात की। जब सार्वजनिक उपक्रमों का गठन विकास की अवधारणा को लेकर किया गया था, तब लाभ की अवधारणा कब और कैसे आ गई?
उत्तर: मैं उसी पर आ रहा हूं। संपूर्ण अर्थव्यवस्था की कुशलता का मापदंड केवल व्यावसायिक इकाइयों द्वारा अर्जित मुनाफे को मानना सही बात नहीं है। उनके कुशल संचालन के मानक तो होने चाहिए, परंतु मुनाफा मात्र नहीं। उनके लिए अंतिम मानक देशहित और जनहित होने चाहिए। उनमें से चाहे कुछ एक को घाटा भी उठाना पड़े। इस दृष्टि से सार्वजनिक उपक्रमों की भूमिका बनी ही रहेगी। उदारीकरण के इस दौर में निजी निवेश की भूमिका भी सतत विस्तारित होती जा रही है। सिंचाई, सड़क, बंदरगाह, हवाई अड्डे, विद्युत, संचार, यातायात आदि में भारी मात्रा में निजी निवेश हो रहा है। यह आवश्यक भी है क्योंकि जिस गति से आधारभूत अधोसंरचना की मांग और आकार बढ़ते जा रहे हैं, उसे पूरा करने की बात अकेले सरकार के वश की नहीं है। इसी के साथ इन सब सेवाओं के रखरखाव हेतु संसाधन जुटाने के लिए इनके प्रयोगकर्ताओं द्वारा प्रभार अदा करने की विधा भी प्रारंभ हुई है। शासन तंत्र तथा निजी निवेशकों की सांठगांठ से आम आदमी का शोषण न हो अतः नियामक आयोगों और संस्थाओं की स्थापना करनी पड़ रही है। निष्कर्ष यह है कि समाजवाद के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया जा सकता है, मार्क्स की यह मान्यता इस विश्वास पर आधारित थी कि राज्य अपनी भूमिका सदैव ईमानदारी और वस्तुपरक निष्ठा से निर्वहन करता रहेगा। परंतु मार्क्स संभवतः यह अनुमान नहीं लगा पाये कि राज्य चलाने वाले भी मनुष्य ही हैं जो प्रकृति से ही अपूर्ण होते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में तो पूंजी का केन्द्रीयकरण पूंजीपतियों के हाथ में होता था और यदा-कदा वे राज्य सत्ता में बैठे लोगों से दुरभिसंधि करके शोषण करते थे। परंतु समाजवादी/साम्यवादी व्यवस्था में तो राज्य सत्ता और भौतिक संसाधनों की सत्ता दोनों का स्वामित्व एक ही हाथ में केंद्रित हो गये। फिर तो मार्क्स के ही तर्क सिद्धांत के अनुसार शोषण और भी निरंकुश और अधिक होना स्वाभाविक था। साम्यवादी व्यवस्था का छिन्न-भिन्न होना इसी का स्पष्ट परिणाम भी है और प्रमाण भी। इसीलिए तो रूस तथा चीन जैसे साम्यवादी राष्ट्र उल्टी दिशा में मुड़ गये हैं।
भारत के इतिहास में मनु द्वारा प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था का सिद्धांत इसका समांतर उदाहरण है। मनु के विशुद्ध तर्कशास्त्र और उसकी आधारभूत मान्यताओं के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को समाज में अपने जन्मजात गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार कार्य मिलेगा, तभी वह समाज के विकास में सर्वोत्तम योगदान कर सकेगा। उनका विश्वास था कि समाज के उत्तरदायी लोग प्रत्येक व्यक्ति को उसकी स्वाभाविक रूचि और योग्यता के अनुसार काम करने देंगे और उस दिशा में प्रवृत्त भी करेंगे। कोई विज्ञान पढ़ना चाहे उसे विज्ञान में, खेती करना चाहता हो, उसे खेतों में, चिकित्सक और इंजीनियर बनना चाहता हो, व्यापारी तथा उद्यमी होना चाहता है अथवा शिक्षा और साहित्य के माध्यम से सेवा करना चाहता हो तो क्रमशः उसमें जाने की सुविधा और अनुमति समाज देता रहेगा। बहुत सुंदर विचार थे। परंतु यह निर्णय कौन करे। मनुष्य की पूर्व धारणाओं और पूर्वाग्रहों के कारण इसमें बाधाएं आयेंगी, यह आभास मनु को नहीं हुआ। ब्राम्हण का पुत्र ब्राम्हण, राजा का पुत्र राजा, व्यापारी का पुत्र व्यापारी होने लगा। निहित स्वार्थ की ऐसी भावना मानव मात्र में सार्वभौमिक और सार्वकालिक रूप से पाई जाती है। इसी का परिणाम हुआ जटिल जाति प्रथा। इस धरातल पर मनु और मार्क्स की आधारभूत मान्यताएं एक ही प्रकार से गलत सिद्ध हुई। समाजवादी विचारधारा सर्वथा नई थी, यह कहना भी ठीक नहीं। सामुदायिक संपदा का वैदिक सिद्धांत कार्ल मार्क्स के बहुत पहले से विद्यमान था, जिसका उल्लेख अनेकों स्थानों पर आता है। परंतु सबसे सटीक है यजुर्वेद के अंतिम अध्याय के ये मंत्रः
संभूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याममृतमश्नुते।।
अंधंतम: प्रविशन्ति ये असम्भूतिमुपासते ।
ततो भूय इव ते तमाः य उ सम्भूत्यां रताः ।।
इनका अर्थ है कि जो व्यक्ति और समाज व्यक्तिगत हित और सामुदायिक हित दोनों को भली प्रकार जानते हैं वही विवेकशील हैं। जिस समाज में सामुदायिक हित की अवहेलना कर केवल व्यक्तिगत हित-पोषण पर ध्यान दिया जाता है वह समाज घोर अंधकार में चला जाता है। परंतु इतना ही सत्य यह है कि सामुदायिक हित के विचार, परिभाषा और नियम को यदि व्यक्तियों के ऊपर इतना लाद दिया जाय कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और चिंतन कुंठित हो जायें तो ऐसा समाज और भी अधिक घोर अंधकार में चला जाता है। पहली चेतावनी पूंजीवाद के लिए और दूसरी साम्यवाद के लिए सटीक बैठती है। लोकतंत्र की यह खूबी है कि शासकों को चुनने और उनके क्रियाकलाप की समालोचना और लेखा-जोखा करने का अधिकार समाज के पास रहता है। समाज का जो प्रबुद्ध वर्ग है उसकी भूमिका जनमत निर्माता की है। जनमत से ही शासन तंत्र चुना जाता है और उसकी त्रुटियों को चर्चाओं, परिचर्चाओं और प्रचार-प्रसार माध्यमों तथा साहित्य के द्वारा सतत उजागर किया जाता है। इसका सुपरिणाम यह होता है कि व्यवस्था को किसी भी दशा में एक्सट्रीम, तक अतिवाद तक, नहीं पहुंचने दिया जाता। भूलें और भ्रष्टाचार आदि होते हैं। परंतु उनका संशोधन (Correction) भी होता रहता है। लोकतंत्र में संशोधन की यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है। इस दृष्टि से सत्ता परिवर्तन व्यवस्था को अस्थायित्व नहीं बल्कि स्थायित्व प्रदान करने का काम करता है।
प्रश्न : अब जो मानदंड बन गये हैं कि यदि उपक्रम लाभ कमाता है तो ठीक वरना बेकार है। इसमें आपकी राय क्या है?
उत्तर: आपके इस प्रश्न का कुछ खुलासा तो मैं पूर्व ही कर चुका हूँ। अधिक विस्तार से कहें तो सवाल यह आता है कि अर्थव्यवस्था के विकास के परिणामस्वरूप जो अतिरिक्त आय अथवा संपत्ति निर्मित होती है यह किसके हाथ में जाय। अर्थशास्त्र के उपयोगिता सिद्धांत के आधार पर जांच कर देखा जाय तो स्थिति स्पष्ट होती है। मान लीजिये अर्थव्यस्था में एक रूपये का अतिरिक्त योग हुआ। यह रुपया अरबपति या करोड़पति व्यक्ति को मिलता है तो उसका महत्व कुछ नहीं है। परन्तु वही रुपया एक ऐसे गरीब आदमी को मिले जो भूखा है, वह उससे दो रोटी खरीदकर अपनी भूख मिटाने का काम करेगा। उसके लिये वही एक रूपया कितना महत्वपूर्ण हो जाता है। कितना अंतर हो जाता है एक ही रुपये की संतुष्टि प्रदान करने की क्षमता में। उपयोगिता के इसी सिद्धांत पर आधारित है संपत्ति के समतामूलक वितरण का सिद्धांत सार्वजनिक उपक्रमों और निजी उपक्रमों के उद्देश्य और परिणाम में यही अंतर है। अतः केवल लाभ को कुशलता का मानदण्ड बनाना पर्याप्त नहीं है।
प्रश्न : आपने बताया कि जब निजी क्षेत्र भारत के विकास में सुचारू योगदान नहीं दे पा रहा था तब सार्वजनिक उपक्रम स्थापित किये गये थे। अब यह बात हो रही है कि सार्वजनिक उपक्रम ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, अतः उन्हें निजी हाथों में सौंप देना चाहिए। यह विचार कहाँ से आया और आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर: देखिये, मैं न तो इससे पूर्णतः असहमत हूँ और न ही पूर्णतः सहमत। इसका निर्णय गतिविधिवार और उपक्रमवार समीक्षा करने के उपरांत ही किया जाना चाहिये। उदाहरण के लिये वायु सेवा को लें। इसका उपयोग देश का आम आदमी नहीं करता। अधिकांश संपन्न लोग ही वायुयान यात्रा करते हैं। तब सरकार उसमें निवेश क्यों करे और लगातार घाटा होने के बावजूद उसे क्यों चलाये। दूसरे यह भी इतना ही महत्वपूर्ण है कि निजी व्यवसायी इनसे मुनाफा कमाते हैं और सेवाओं की गुणवत्ता भी बनाये रखते हैं। वायु सेवा और संचार सेवाएं इसके ठोस उदाहरण हैं। सरकार की एक शाश्वत वृत्ति ऐसी है जिसे ध्यान में रखना जरूरी है। वह यह कि सरकार में बैठे लोग कुछ समय बाद सेवाभाव भूलकर शहंशाही भाव में आ जाते हैं। जनता के प्रति उनकी संवेदनशीलता घटती चली जाती है और फिर वे शोषण करने लगते हैं। तब परिवर्तन की आवश्यकता हो जाती है। परन्तु यह भी आवश्यक है कि निजी क्षेत्र को खुली छूट और अवसर नहीं दिया जाय। विशेषकर उसे एकाधिकार प्राप्त करने की इजाजत किसी कीमत पर नहीं होनी चाहिए। सार्वजनिक उपक्रम निजी निवेश के साथ स्वस्थ स्पर्धा करते रहें यह जरूरी है। आयल सेक्टर के उदाहरण से इसे स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। संचार सेवाओं के क्षेत्र में भी ऐसा ही है। इन दोनों क्षेत्रों के बराबर काम करने से ग्राहकों को दाम और गुणवत्ता दोनों में राहत और लाभ प्राप्त हुए हैं। कहने का अर्थ यह है कि प्रत्येक सार्वजनिक उपक्रम की उपयोगिता और कार्यकुशलता की सतत् समीक्षा होती रहनी चाहिये। एक-एक इकाई की कड़े मानदंडों के आधार पर जांच के बाद उनमें सुधार अथवा उनके विनिवेश का निर्णय किया जाना चाहिये।
प्रश्न: कुछ क्षेत्र तो सरकार को तय करने ही पड़ेगें जहाँ सार्वजनिक उपक्रम बने रहें। निजी निवेश तो वहीं आकर्षित होगा जहाँ लाभ अधिकतम होगा।
उत्तर: यही तो मैंने कहा है। निजी निवेश के संबंध में तो यह सर्वविदित है कि मुनाफा कमाना ही उसका एकमात्र उद्देश्य है। परन्तु हम और आप प्रश्न उठा रहे हैं सार्वजनिक निवेश और उसके तर्क आधार का। जो वित्तीय संसाधन आपके पास है उसका आप ठीक इस्तेमाल कर रहें कि नहीं, पहले हमें यह आत्म निरीक्षण करना होगा। निजी निवेशकों का तो अपना पैसा है। परन्तु सार्वजनिक उद्यमों के पास तो सरकार का, बल्कि जनता का, पैसा है। उसका उपयोग तो सर्वाधिक सावधानी और जनता के प्रति उत्तरदायित्व की भावना से होना चाहिये। यदि आप ऐसा नहीं कर रहे हैं, ठीक से और पूरा काम नहीं करते हैं, भ्रष्ट आचरण और दूसरे प्रकार से पैसा अपव्यय करते हैं तो न तो आपके पास अपने पद पर बैठने का नैतिक अधिकार है और न निजी निवेश के ऊपर छींटाकशी करने या उसे सार्वजनिक हित का उपदेश देने का। ऐसा करने से पहले आपको अपने पैरों के नीचे की धरती को साफ करना होगा। अपनी ग्राउण्ड क्लियर करनी होगी। अपनी निष्ठा, प्रतिबद्धता, कुशलता और उपयोगिता सतत् सिद्ध करनी होगी। अन्यथा सार्वजनिक संसाधनों के दुरूपयोग की अनुमति लंबे समय तक नहीं दी जा सकती।
प्रश्न: जो सार्वजनिक उपक्रम बदहाल हो गये हैं उनको कैसे ठीक किया जाय, क्या करना होगा इन सार्वजनिक उपक्रमों को?
उत्तर: देखिये, बदहाली से निकलने के लिये दो बात आवश्यक हैं। एक तो उनका व्यावसायिक कुशल प्रबंधन और दूसरा उत्कृष्ट सेवा की प्रस्तुति। इन सबके ऊपर यदि कारपोरेशन घाटा भी करे तो फिर क्या आधार बनता है उसे चालू रखने का। इसलिये मैंने कहा कि सार्वजनिक उद्यमों को चालू रखना है अथवा बंद करना है यह निर्णय केस-टू-केस-बेसिस यानी प्रत्येक इकाई को आधार मानकर निर्मल और दृढ़ विवेक से करना पड़ेगा।
प्रश्न: राज्यों में निगम मण्डलों की छवि इतनी खराब करदी गई है कि इनका नाम आते ही इसे सफेद हाथी, भ्रष्टाचार के अड्डे आदि सम्बोधनों से उल्लेख करते हैं। आम जनता में राज्यों के निगम मण्डलों की छबि सुधारने के लिये क्या किया जाना चाहिये?
उत्तर: इसका सीधा उत्तर यह है कि जो लोग इसके पक्षधर हैं और जो इनमें पदस्थ हैं छवि सुधारने में उन्हीं का हित है, स्वार्थ है और उन्हीं का कर्तव्य है। यदि सुधार नहीं होंगे तो उपक्रम बंद हो जायेंगे और उनके सभी अधिकारी और कर्मचारी अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठेंगे। मेरी निश्चित मान्यता है कि कुछ काम तो हमेशा ऐसे रहेंगे जिन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में ही करना होगा। उदाहरण के लिये सिंचाई की सुविधाओं का निर्माण, गाँवों और गरीबों की पेयजल, विद्युत, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पशु चिकित्सा सेवा, खेती और ग्रामीण उद्योगों की तकनीकी जानकारी आदि। इसीलिये इस बात का फैसला नीति निर्धारकों को कदम-कदम पर करना होगा कि राज्य सत्ता के अधिकार के कारण करें अथवा अन्य प्रभारों के माध्यम से जो राशियाँ और संसाधन सरकार के पास आते हैं उनके निवेश की प्राथमिकता क्या हो। इसके निर्धारक तत्व मूल रूप से दो हैं। एक तो यह कि जो कार्य सार्वजनिक हित का हो, परन्तु निजी निवेशकों की दृष्टि से लाभकारी न हो, उसमें सरकार निवेश करे। दूसरे जिस क्षेत्र में निजी निवेश के एकाधिकार की संभावना हो वहाँ उसकी स्वेच्छाचारिता और मुनाफाखोरी पर अंकुश रखने के लिये प्रतिस्पर्धी के रूप में सरकार निवेश करे। मैं दोहराना चाहूँगा कि वायु सेवाएं और संचार सेवाएं इसके ठोस उदाहरण हैं। एक और अत्यधिक महत्वपूर्ण बात है निवेश की प्राथमिकता की। उसका क्रम समाज और राष्ट्र की आवश्यकता से तय होना चाहिये। उदाहरणार्थ पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और ऐसी अन्य गतिविधियां जिनसे समाज के उपेक्षित और वंचित वर्गों की ये मौलिक आवश्यकतायें और देश की बाह्य खतरों से रक्षा तथा आंतरिक कानून व्यवस्था ठीक नहीं हो जाती तब तक अन्य क्षेत्रों में सरकार का निवेश सर्वथा अनुचित है।
सार्वजनिक निवेश की प्राथमिकताओं का जो क्रम आजादी के बाद की चार पंचवर्षीय योजनाओं में रहा वह बिल्कुल सही था। दुर्भाग्य से पांचवीं योजना और उसके बाद वह सब उल्टा सीधा हो गया। मैं अपनी बात केन्द्रीय योजना आयोग के अनुभव और उदाहरण के आधार पर करना चाहूँगा। पहली चार पंचवर्षीय योजनाओं में सिंचाई परियोजनाओं के निर्माण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। मुख्यतः उसी का सुपरिणाम यह हुआ कि हम कृषि उत्पादन में न केवल आत्म निर्भर हो गये बल्कि निर्यात भी करने लगे। परन्तु पांचवीं योजना से अब तक सिंचाई और कृषि में निवेश लगातार घटता चला गया। जब यह बात मैंने उठाई तो दो उत्तर मिले। एक तो यह कि सिंचाई राज्यों का विषय है और दूसरा यह कि वित्तीय संसाधनों का अभाव है। जहाँ तक राज्य के विषय का सवाल है तो कृषि, स्वास्थ्य और ऐसे कई अन्य विषय भी हैं जो राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं फिर भी केन्द्र उनमें निवेश कर रहा है। यह स्थिति तो पहली चार पंचवर्षीय योजनाओं के काल में भी ऐसी ही थी। दूसरा सवाल रहा वित्तीय संस्साधनों के अभाव का।
संचार व्यव्स्था के विषय में मेरी मान्यता है कि यह एक लाभकारी व्यवसाय है। इसमें निवेश करने के लिये निजी निवेशक हर समय तैयार रहते हैं, उन्होंने किया भी है। उनकी सेवाएं भी सार्वजनिक क्षेत्र की अपेक्षा बेहतर गुणवत्ता की हैं। फर्टीलाइजर सब्सिडी के विषय में कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि इन राशियों का लगभग 60 प्रतिशत उर्वरक निर्माता कंपनियों की जेब में जाता है। केवल 40 प्रतिशत भाग किसानों तक पहुँचता है। इस व्यवसाय को लगातार सरकारी अनुदान दिये जाने में निहित स्वार्थ की बहुत बड़ी भूमिका है।
उड़ीसा प्रदेश के कालाहांडी, बोलनगीर और कोरापुत जिलों, जिन्हें भारत की " पावटीं पाकेट' कहा जाता है, में कुछ ऐसे गाँव हैं जहाँ 70-70, 80-80 टेलिफोन लगे हैं। परन्तु पीने का पानी कई-कई कि.मी. दूर से लाना पड़ता है। क्या भारत की यही प्राथमिकतायें हैं। कहने का अर्थ यह है कि पेयजल, सिंचाई, चिकित्सा, शिक्षा और कानून व्यवस्था आदि को ठीक करने की प्राथमिकता निश्चित रूप से टेलिफोन और कम्प्यूटर से ऊपर होनी चाहिये। हो रहा है उल्टा और वह भी कुछ कंपनियों के अस्तित्व को बचाने के नाम पर। इन प्राथमिकताओं की अविलम्ब समीक्षा और जनता को सही जानकारी प्राप्त कराये जाने का काम अविलम्ब होना चाहिये। संसाधन तो सीमित हैं और उनके उपयोग अनेकों हो सकते हैं। किसको पहले किया जाय और किसको बाद में यही तो है अर्थशास्त्र का मूल सिद्धांत और उसे पढ़ने का मूल उद्देश्य। सार्वजनिक उपक्रम उसके अपवाद नहीं हो सकते।
प्रश्न: केन्द्र सरकार के उपक्रमों में चेयरमैन और एम. डी. एक ही व्यक्ति होता है। कुछ राज्यों के सार्वजनिक उपक्रमों में ऐसा नहीं है। क्या राज्यों में भी यह नहीं हो सकता?
उत्तर: इसकी कुछ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है और कुछ अन्य कारण हैं, जो सभी जगह समान रूप से पाये जाते हैं। प्रारंभ में विचार यह था कि उपक्रम के दैनिक कार्य और व्यवसाय को संचालित करने का काम प्रबंध निदेशक करता था। नीति निर्धारण तथा महत्वपूर्ण निर्णय चेयरमैन और बोर्ड आफ डायरेक्टर्स के निर्देश से होते थे। यह एक चैक-बैलेंस की व्यवस्था थी। परन्तु कालान्तर में चेयरमैन प्रायः राजनैतिक व्यक्ति होने लगे। वे संस्था के मूल उद्देश्य के बजाय अपने राजनैतिक और व्यक्तिगत हितों के पालने में रूचि लेने लगे। साथ ही सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिये सार्वजनिक उद्यमों के उत्पादों और सेवाओं के मूल्यों को भी प्रभावित करने लगे। तीसरी राजनैतिक बीमारी थी अपने समर्थकों और रिश्तेदारों को अनावश्यक रूप से भर्ती कर नौकरी देने की। आहिस्ता आहिस्ता उपक्रमों का स्थापना व्यय बढ़ता चला गया और व्यावसायिक कुशलता कम होती चली गई। जिन लोगों को व्यक्तिगत और राजनैतिक कारणों से भर्ती किया जाता था उनकी योग्यता, कार्यकुशलता और अनुशासन भी वांछित स्तर के नहीं थे। इस अनुभव के बाद शायद चेयरमैन के पद या तो समाप्त कर दिये गये या चेयरमैन और एम.डी. का एक ही पद रखा गया। प्रदेशों में राजनैतिक कारणों से यह प्रवृत्ति सर्वत्र यथावत दृष्टिगोचर होती है। व्यावसायिक अनुभव का अभाव, सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने के लिये अनावश्यक भर्ती, निहित स्वार्थ की श्रृखंला स्थापित करना आदि प्रवृत्तियां हैं। उनके कारण मूल उद्देश्यों से हटकर सार्वजनिक उपक्रम राजनैतिक अखाड़ों का केन्द्र बन गये
प्रश्न: क्या निगम मण्डलों के प्रबंध संचालक किन्हीं विशेष योग्यताधारी व्यक्तियों को ही बनाया जाना चाहये ?
उत्तर: निश्चित रूप से। ठीक वैसे ही जैसे निजी क्षेत्र में लोग करते हैं। दुर्भाग्य है कि ऐसी पदस्थापनायें प्रायः राजनैतिक कारणों से ही होती हैं। इसे निश्चयात्मक बुद्धि से बदलने की जरूरत है। केवल तकनीकी और व्यावसायिक योग्यता और क्षमता के व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाना चाहिये।
प्रश्न : उपक्रम पत्रिका सार्वजनिक उपक्रमों पर केंद्रित पत्रिका है।
हम सार्वजनिक उपक्रमों के सकारात्मक पक्ष को प्रकाश में लाना चाहते हैं। आपकी क्या राय है?
उत्तर: इस प्रकार के प्रचार-प्रसार के माध्यम का जिसमें "उपक्रम" सम्मिलित है, मूल कर्तव्य यही है कि व्यवस्था के गुष दोष का विवेचन करके लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते रहें। जिससे नीति निर्धारकों और आम जनता को वास्तविकता का पता लगे। जितने पवित्र भाव से आप यह कार्य करेंगे उतने आप साधुवाद के पात्र होंगे।